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Lucknow junction

भाषाओं पर मंडराता मंडराता विलुप्ति का खतरा-

News-Desk by News-Desk
December 8, 2025
in देश
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पंजाब का जल संकट -सिमटते जलस्रोत व ज़हरीला होता पेयजल




वैज्ञानिक तकनीक के माध्यम से कृत्रिम मेधा यानी आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस का ऐसा उपकरण बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जो जानवरों की भाषाओं को समझ सके। यदि ऐसा संभव हुआ, तो यह मानव इतिहास में एक नई क्रांति होगी, क्योंकि पशु-पक्षी प्रकृति के प्रति अत्यंत संवेदनशील होते हैं और कुछ तरंगों से इस तरह स्पंदित होते हैं कि आने वाली घटनाओं की अनुभूति उन्हें पहले ही हो जाती है भारतीय वांग्मय में ऐसे कुछ पात्रों का उल्लेख है, , जो पशु-पक्षी की बात सुनते थे। यदि एआई इस गुण को जनसामान्य को उपलब्ध करा पाता है. तो तकनीक निश्चित रूप से जीवन को एक नए सांचे में ढालने मदद करेगी। मगर जो मनुष्य समाज पशु-पक्षियों की भाषाओं को समझने का प्रयास कर रहा है, वही अपनी पारंपरिक भाषाओं को लेकर असंवेदनशील होता जा रहा है इसका अनुमान संयुक्त राष्ट्र संघ की एजेंसी ‘यूनेस्को’ के उस मानचित्र से लगाया जा सकता है, जो उसने दुनिया की संकटग्रस्त भाषाओं के बारे में जारी किया है। ‘एटलस आफ द वल्ड्स लैंग्वेज इन डेंजर’ के अनुसार, इस समय दुनिया की 1576 भाषाओं पर गंभीर संकट मंडरा रहा है, यानी वे लुप्त होती प्रतीत हो रही हैं। इसके अलावा, हजारों अन्य भाषाएं भी दम तोड़ती नजर आ रही हैं।

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भाषाएं केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होतीं, बल्कि वे किसी समाज विशेष की हजारों साल की परंपराओं और उसके अनुभवों की वाहक भी होती हैं। इस बात का अनुमान राजस्थानी भाषा के विभिन्न रूपों से लगाया जा सकता है। पश्चिमी राजस्थान का बड़ा भू-भाग मरुस्थल है। इस क्षेत्र में बरसात का अपना महत्त्व होता है राजस्थानी भाषा में विक्रमी कैलेंडर के महीने में होने । वाली बारिश के लिए एक अलग नाम है चैत्र माह में होने वाली बारिश को चड़पड़ाट, बैसाख की बारिश को हलोतियो और जेठ माह की बारिश को झपटो कहा जाता है। इसी तरह से अन्य माह में में होने वाली बारिश के लिए लिए अलग- -अलग । संबोधन हैं उन्हें क्रमशः सरवांत ( आषाढ़), लेर (सावन), झड़ी (भाद्रपद), मोती (आश्विन), कटक (कार्तिक), फांसरड़ो (मार्गशीर्ष), पावट (पोष), मावठ (माघ) और फटकार (फागुन की

बारिश ) कहा जाता है। ठीक इसी तरह राजस्थानी भाषा में ऊंट के 270 को समझने के

से अधिक पर्यायवाची शब्द हैं। ऐसे में राजस्थानी संस्कृति व लिए उसकी भाषा को समझना और सहेजना आवश्यक

भाषाएं समाज की सांस्कृतिक पहचान भी होती हैं। ब्रिटिश शासनकाल में भारत भारत लार्ड मैकाले की ओर से सुझाई गई अंग्रेजी आधारित शिक्षा पद्धति लागू करने ( करने का एक उद्देश्य यह भर था कि भारतीयों को उनके सांस्कृतिक गौरव से वंचित किया जाए। अंग्रेज अधिकारियों के परस्पर पत्रव्यवहार से इस बात का खुलासा आजादी के बाद हुआ। किसी समाज की अभिव्यक्ति को कमजोर करने के लिए औपनिवेशिक ताकतें इस तरह के हथकंडे अपनाया करती थीं।

पिछली सदी में औसतन हर तीन महीने में एक देशज भाषा लुप्त हुई है। भाषाविदों का मानना है कि इसी तरह की स्थितियां रहीं, तो दुनिया में इस समय काम में आने वाली भाषाओं में से आधी इस सदी के अंत तक यानी अगले

पचहत्तर वर्षों में लुप्त हो जाएंगी। यह आशंका इसलिए भी डराती है, क्योंकि वर्ष 1950 से 2010 के बीच दुनिया की 230 भाषाएं लुप्त हो चुकी हैं और यूनेस्को के अनुसार, हर चौदह दिन में एक भाषा समाप्त हो रही है। कुछ भाषाएं तो मानव समाज की लापरवाही के कारण मृत अवस्था में पहुंच गई हैं।

अंडमान द्वीप समूह में एक भाषा बोली जाती थी ‘बो’। उसे बोलने वाले धीरे-धीरे कम होते चले गए। अंत में बोआ नाम की एक 85 वर्षीय महिला बची जो इस भाषा को बोल एवं समझ सकती थीं। संस्थागत स्तर पर उनसे संवाद करके इस भाषा के संग्रहण का काम होता, तो कदाचित इसे अगली पीढ़ियों तक पहुंचाया जा सकता था, मगर ऐसा नहीं हुआ। 26 जनवरी 2010 को बोआ का निधन हुआ और उनके साथ ही ‘बो’ ने भी दम तोड़ दिया । ऐसा ही ‘खोरा’ भाषा के साथ भी हुआ। प्री कोलंबियाई मैक्सिकन भाषा ‘अयापानेको’ के संदर्भ में तो और भी रोचक बात हुई इस भाषा को बोलने एवं समझने वाले दो ही व्यक्ति बचे थे भाषाविदों ने इन दोनों के परस्पर संवाद से इस भाषा को सहेजने का प्रयास किया, लेकिन इनके बीच आपसी विवाद पैदा हो गए। इसलिए दोनों ने वर्षों तक एक-दूसरे से संवाद ही नहीं किया। इन वैयक्तिक पूर्वाग्रहों ने इस भाषा को संकट में धकेल दिया। रोजगार के सिलसिले में अपने पैतृक स्थान को छोड़कर दूसरी जगह जाने की प्रवृत्ति या विवशता ने भी लोगों को अपनी भाषाओं से दूर किया है। पराये शहर वे अपने अस्तित्व और आर्थिक उन्नयन के लिए जूझते या भाषा के प्रति अपनी संवेदना को बचाते ?

शिकागो विश्वविद्यालय में भाषाविद रहे सालिकोको मुफवेने की मातृभाषा कियानसी थी। यह भाषा कांगो गणराज्य में एक छोटे जातीय समूह द्वारा बोली जाती है। अपने पैतृक स्थान से दूर रहने वाले सालिकोको का कहना है कि उन्हें चार दशक के अपने प्रवास में कियानसी बोलने वाले दो ही लोग मिले। ऐसे में अपनी मातृभाषा बोलने का उनका अभ्यास जाता रहा। अक्सर संयुक्त परिवार में रहने वाले बच्चे अपने दादा-दादी या अन्य बुजुगों से मातृभाषा में संवाद करते हैं, लेकिन एकल परिवारों के बढ़ते चलन ने अधिकांश बच्चों को अपनी पारंपरिक भाषाओं से से दूर कर दिया। करियर की होड़ तो उन्हें कुछ खास भाषाओं की ओर उन्मुख करती है। भारत में सरकार ने प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने की नीति बनाई है। यह समय बताएगा कि यह नीति समाज की भाषाई विविधता को बचाए रखने में कितनी भूमिका अदा करती है।

वहीं, भाषाओं के प्रति कुछ ताकतवर लोगों के अपने दुराग्रह भी हैं। कुछ समय पहले चीन में एक भाषाविद को इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया, क्योंकि वे अपनी मातृभाषा उइगर को बचाने के लिए एक स्कूल खोलने की योजना रहे थे। ऐसे दुराग्रह दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में विभिन्न रूपों में सामने आते हैं। कहीं कोई भाषा बोल पाने में अक्षम ऐसे लोगों को सताया जाता है, | उस भाषाभाषी का सदस्य ही नहीं होते.

| समूह

भाषा का विरोध

तो कहीं किसी भाषा विशेष के संरक्षण के नाम पर पर दूसरी भाषा का

किया जाता है। जबकि जो भाषाएं संकट में हैं, उन्हें बचाए जाने के सार्थक प्रयास किए जाने चाहिए। ईमानदार और जिम्मेदार कोशिशें हों, तो संकट में पड़ी

हुई भाषाओं को बचाया जा सकता है। भूमिज भाषा का उदाहरण लिया जा सकता है। पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और ओड़ीशा के कुछ हिस्सों में बोली जाने वाली यह देशज भाषा यूनेस्को द्वारा अतिसंकट में घोषित भारत की 197 भाषाओं में एक थी। वर्ष 2018 में इस समाज के कुछ जागरूक युवाओं ने अपनी भाषा को बचाने के लिए स्कूल खोले और आनलाइन पाठ्यक्रम भी शुरू किए। उनकी पहल रंग लाई, पचास हजार से अधिक युवाओं ने इस पहल के बाद भूमिज भाषा को सीखा है। दरअसल, भाषाएं संकट में आती ही इसलिए हैं, क्योंकि नई पीढ़ी उनके उपयोग के प्रति उदासीन हो जाती है। संपूर्ण समाज को भाषाओं के प्रति संवेदनशील होना होगा, क्योंकि भाषाएं मानवीय अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का आभूषण हैं।

डॉ विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब

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